(www.arya-tv.com) दुनिया में जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम में भारी उलटफेर हो रहा है। चरम मौसमीय घटनाओं में वृद्धि हो रही है। कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश हो रही है तो कहीं सूखा पड़ रहा है। अनियमित मौसम की मार से भारत भी प्रभावित हुआ है। दक्षिणी राज्यों में अतिवृष्टि से भारी तबाही हुई है और हाल ही में पूर्वी तट पर समुद्री चक्रवातों का कहर भी बढ़ा है। इन प्राकृतिक विपदाओं का सीधा असर कृषि उत्पादन पर पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के वर्तमान रुझानों को देखते हुए हमें आए दिन विषम मौसमीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। अधिक गर्म तापमान और फसल बुवाई का समय लंबा खिंचने से कृषि उत्पादन प्रभावित होगा। इसी तरह बहुत-सी फसलें जलमग्न खेतों में नहीं टिक पाएंगी।
दुनिया के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के इन खतरों से वाकिफ हैं और उन्होंने ऐसी फसलों की खोज आरंभ कर दी है जो इन परिवर्तनों का प्रतिरोध कर सकें। कुछ वैज्ञानिकों ने दुनिया में विषम परिस्थितियों में उगने वाले पौधों का अध्ययन शुरू किया है। वे यह देखना चाहते हैं कि क्या खाद्यान्न फसलें भी इन पौधों का अनुसरण कर सकती हैं।
पृथ्वी पर अत्यंत कठोर वातावरण में भी पेड़-पौधे पनपते हैं। यदि वैज्ञानिकों को ऐसी विषम परिस्थितियों में उगने वाले पौधों के खास जीनों का पता चल जाए तो दुनिया में दूसरी शुष्क जगहों पर भी इस तरह के पौधे उगाए जा सकते हैं। शोधकर्ताओं के अंतर्राष्ट्रीय दल ने चिली के एटाकामा रेगिस्तान में पनपने वाले पौधों में कुछ खास जीनों की पहचान की है। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि फसलों में इन जीनों का समावेश करके उन्हें कठोर जलवायु झेलने लायक बनाया जा सकता है।
इस अध्ययन की सह-लेखक और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर ग्लोरिया कोरूजी ने कहा है कि दुनिया में तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुए हमें शुष्क और कम पौष्टिकता वाली परिस्थितियों में फसल उत्पादन और पौधों की सहनशीलता बढ़ाने की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए हमें उनका आनुवंशिक आधार खोजना पड़ेगा।
इस अध्ययन में जिन विशेषज्ञों ने भाग लिया, उनमें वनस्पति शास्त्री, सूक्ष्म जीव-विज्ञानी, परिस्थिति विज्ञानी और आनुवंशिक विज्ञानी शामिल थे। विविध विषयों के इन जानकारों की मदद से शोध दल ने एटाकामा रेगिस्तान में उगने वाले पौधों, उनसे जुड़े जीवाणुओं और जीनों की पहचान की। चिली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रोड्रिगो गुटिएरेज ने कहा कि एटाकामा रेगिस्तान में पौधों का अध्ययन दुनिया के उन तमाम क्षेत्रों के लिए प्रासंगिक है जो तेजी से शुष्क हो रहे हैं और जहां विषम तापमान, पानी और मिट्टी में लवण की अधिकता से दुनिया के खाद्यान्न उत्पादन को खतरा पैदा हो गया है।
चिली के एटाकामा रेगिस्तान के एक तरफ प्रशांत महासागर और दूसरी तरफ एंडीज पर्वत माला है। यह ध्रुवों को छोड़ कर दुनिया की सबसे शुष्क जगह है। इसके बावजूद यहां दर्जनों प्रकार के पौधे लगते हैं, जिनमें घास और बारहमासी झाडिय़ां शामिल हैं। एटाकामा में उगने वाले पौधों को सीमित जल के अलावा अधिक ऊंचाई, मिट्टी में कम पौष्टिकता और सूरज की रोशनी के उच्च विकिरण जैसी विषमताओं को भी झेलना पड़ता है। चिली के शोध दल ने एटाकामा रेगिस्तान में दस वर्ष की अवधि के दौरान एक कुदरती प्रयोगशाला स्थापित की है। यहां उन्होंने विभिन्न वानस्पतिक क्षेत्रों और ऊंचाइयों पर 22 जगह जलवायु, मिट्टी और पौधों की विशेषताओं का अध्ययन किया।
उन्होंने इन क्षेत्रों के तापमान को रिकॉर्ड किया, जिसमें दिन और रात में 50 डिग्री का उतार-चढ़ाव था। उन्होंने इन क्षेत्रों में उच्च विकिरण के स्तर और रेत की संरचना का भी अध्ययन किया। इस क्षेत्र में साल में कुछ ही दिन बरसात होती है। शोधकर्ताओं ने तरल नाइट्रोजन में सुरक्षित पौधों और मिट्टी के नमूनों को प्रयोगशाला में पहुंचाया। प्रयोगशाला में एटाकामा की 22 प्रमुख वनस्पति प्रजातियों में अभिव्यक्त जीनों और पौधों से जुड़े जीवाणुओं का अध्ययन किया गया।
शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि कुछ पौधों ने अपनी जड़ों के निकट ऐसे जीवाणुओं को विकसित किया जो रेगिस्तान में नाइट्रोजन की कमी वाली मिट्टी में नाइट्रोजन के अधिकतम इस्तेमाल में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं ने एटाकामा की परिस्थितियों के अनुरूप पौधों को ढालने वाले 265 जीनों की पहचान की। इस शोध में सम्मिलित अधिकांश प्रजातियों का पहले अध्ययन नहीं हुआ था। एटाकामा के कुछ पौधे प्रमुख खाद्य फसलों, फलियों और आलुओं से संबंध रखते हैं। अत: शोधकर्ताओं द्वारा पहचाने गए जीन एक बड़ी आनुवंशिक खदान की तरह हैं।
इस बीच, वैज्ञानिकों के दूसरे दल मौजूदा खाद्य फसलों की ऐसी किस्में विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम कर सकें। कर्नाटक के शिमोगा जिले में उगने वाली धान की एक किस्म, जड्डू बट्टा लंबे समय तक जलमग्न खेत में रह सकती है। इस किस्म से जलवायु प्रतिरोधक धान की किस्म विकसित करने की उम्मीद जगी है। गोवा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तटवर्ती कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने धान की ऐसी किस्में विकसित की हैं जो गोवा और तटवर्ती कर्नाटक में लवण प्रभावित मिट्टी में भी उग सकती हैं। जड्डू बट्टा की फसल शिमोगा में नदी किनारे लगती है। कृषि वैज्ञानिक जड्डू बट्टा की किस्म और लवण प्रभावित मिट्टी में उगने वाली धान की किस्मों की संकर किस्म विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं।
लवण युक्त मिट्टी वाले धान से ज्यादा पैदावार होती है जबकि जड्डू बट्टा जलमग्नता को अधिक समय तक झेल सकता है। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों का मत है कि धान की संकर किस्म लवणता और जलमग्नता की समस्याओं से निपट सकेगी। इस साल जबरदस्त बारिश के कारण कई दिन तक खेत पानी में डूबे रहे। नदियों और खाड़ी से रिसने वाले लवण से धान की उत्पादकता और कृषि आय में कमी आई। अमेरिका में मेन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता आलू की एक ऐसी किस्म का विकास कर रहे हैं जो गर्म मौसम और बुवाई के लंबे समय से अप्रभावित रहेगी। शोधकर्ता इस बात से भी अवगत हैं कि आलू की फसल अतिवृष्टि की स्थिति में जलमग्न खेतों में नहीं टिक पाएगी। अत: उनकी कोशिश ऐसी किस्में विकसित करने की है जो जलवायु परिवर्तन के हर प्रभाव को झेल सकें।