भरत झुनझुनवाला
कोविड के संकट ने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर विचार करने के लिये मजबूर कर दिया है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा प्रकाशित नेशनल हेल्थ एकाउंट 2018 के अनुसार सरकार ने 2015-16 में स्वास्थ्य पर कुल 48,000 करोड़ रुपये खर्च किये थे। इसमें से 9,000 करोड़ सरकारी कर्मियों के स्वास्थ्य पर और 39,000 करोड़ शेष जनता के स्वास्थ्य पर खर्च किये गये। केन्द्र सरकार के कर्मियों की संख्या लगभग 31 लाख है। इनके परिजनों को जोड़ लें तो 1.5 करोड़ सरकारी कर्मी लाभान्वित हुए होंगे। इनमें प्रत्येक पर 6,000 रुपये प्रति वर्ष का केन्द्र सरकार ने खर्च किया। इनकी तुलना में आम जनता पर 39,000 करोड़ रुपये खर्च किये गये, जिससे 131 करोड़ लोग लाभान्वित हुए। प्रति व्यक्ति लगभग 300 रुपये प्रति वर्ष खर्च किये गये। लगता है सरकारी स्वास्थ्य तन्त्र का मूल उद्देश्य सरकारी कर्मियों को स्वास्थ्य सेवा देना मात्र रह गया है। जनता से इन्हें सरोकार कम ही है।
स्वास्थ्य खर्चों का दूसरा आयाम ‘उपचारÓ बनाम ‘निरोधÓ अथवा ‘प्रिवेंटिवÓ का है। बीमारी लगने के बाद जब आप अस्पताल में जाते हैं और वहां आपको भर्ती किया जाता है और दवाएं दी जाती हैं तो उसे ‘उपचारÓ की श्रेणी में रखा जाता है। तुलना में, सिगरेट नहीं पीना, टीकाकरण, कैंसर का टेस्ट करना इत्यादि कार्यों को ‘निरोधकÓ गतिविधियां कहते हैं। इन गतिविधियों से उपचार में खर्च कम करना होता है। जैसे यदि सरकार सिगरेट पीने के दुष्प्रभावों पर जनता को आगाह करे तो कैंसर कम होगा और कैंसर के उपचार में खर्च भी कम करना होगा। यदि निरोध सही मायने में किया जाए तो उपचार पर खर्च उसी अनुपात में कम हो जाता है। इस दृष्टि से देखें तो वर्ष 2015-16 में सरकार के कुल 48,000 करोड़ खर्च में से 36,000 करोड़ और निरोध पर मात्र 12,000 करोड़ रुपये खर्च किये गये। इस प्रकार हम एक दुष्चक्र में फंस गये हैं। निरोध पर खर्च कम होने के कारण रोग बढ़ रहे हैं और रोग बढऩे से उपचार पर खर्च अधिक किया जा रहा है।
स्वास्थ्य खर्चों का तीसरा आयाम एलोपैथिक बनाम आयुर्वेद, होमियोपैथी इत्यादि उपचार विधियों का है। वर्ष 2020-21 के बजट में एलोपैथी के लिए 63,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये जबकि दूसरी स्वास्थ्य पद्धतियों, जिन्हें आयुष के नाम से जाना जाता है, उन पर केवल 2,100 करोड़ रुपये। एलोपैथी का स्वभाव रोग होने के बाद उसके उपचार करने का है जबकि आयुर्वेद और होमियोपैथी इत्यादि का स्वभाव व्यक्ति के शरीर की मौलिक विसंगतियों को दूर करके उसे स्वस्थ बनाने का है, जिससे कि रोग उत्पन्न ही न हो।
चौथा आयाम एलोपैथी में भी हाईटेक उपचार जैसे हृदय में स्टंट लगाना बनाम सामान्य उपचार जैसे खांसी और ठण्ड की दवा देने का है। नेशनल इंस्टिट्यूट आफ पब्लिक फाइनेन्स एंड पालिसी के गोविंदा राव ने ‘हेल्थ केयर रिफार्मÓ नाम से 2012 में एक पर्चा प्रकाशित किया था। इन्होंने बताया कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में कहा गया था कि हाईटेक उपचार में कुल खर्च का केवल 10 प्रतिशत खर्च किया जाएगा लेकिन वास्तव में यह 28 प्रतिशत है। इसमें उपचार जैसे हृदय में स्टंट लगाना या घुटने का प्रत्यारोपण करना इत्यादि शामिल है। इन हाईटेक उपचारों में डाक्टरों को भारी आमदनी होती है। निरोधक कार्यों से तो ये परहेज करना चाहते हैं, चूंकि इन कार्यों में आमदनी नहीं होती। इस प्रकार सरकारी स्वास्थ्य खर्च डाक्टरों की आमदनी के रास्ते खोलने के लिए किये जा रहे हैं, न कि जनता के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए।
पांचवां आयाम है कि सरकारी खर्चों का है। गोविन्दा राव द्वारा बताया गया कि मध्य प्रदेश और ओडिशा में राज्य सरकार द्वारा खर्च किये जाने वाले खर्च का 83 प्रतिशत सरकारी कर्मियों के वेतन में खप जाता है। अन्य दवा इत्यादि के लिए आवंटन हो ही नहीं पाता। इन तमाम अव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए सरकार को पहला कदम यह उठाना चाहिए कि सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ सर्विस सरकारी कर्मियों तक सीमित करने के स्थान पर सभी जनता के लिए खोल देना चाहिए। दूसरा कदम यह कि स्वास्थ्य खर्चों में निरोधक गतिविधियों और आयुष पर खर्च बढ़ाना चाहिए और हाईटेक उपचार पर घटाना चाहिए। तीसरे, सरकार को स्वास्थ्य खर्चों में वेतन की अधिकतम सीमा निर्धारित करनी चाहिए।
कोविड संकट के इस दौर में डाक्टर बधाई के पात्र हैं। जिस निष्ठा से वे सेवा कर रहे हैं, वह अद्वितीय है। फिर भी सरकार को स्वास्थ्य तंत्र की इन मौलिक विसंगतियों को दूर करने पर कारगर कदम तत्काल उठाने चाहिए।