पिता बैंक से सेवानिवृत्त होने के बाद भी वृत्त चित्र (डॉक्यूमेंट्री) बना रहे हों। मां का अपना साउंड स्टूडियो हो तो बेटे का मनोरंजन की दुनिया में आना तो बनता है। लेकिन, बड़े पर्दे पर बेटे को देख तालियां बजाने का फिल्म थप्पड़ के हीरो पावेल गुलाटी के माता पिता का सपना पूरा होने में 14 साल लगे हैं।
उपनाम गुलाटी हो तो पहला नाम पावेल क्यूं है? सुभाष घई के फिल्म संस्थान से निकले पावेल गुलाटी से बातचीत में पहला सवाल जेहन में यही उठता है।
पावेल बताते हैं, “मेरा जन्म जब हुआ तो मेरे पिता कंवर दीपक गुलाटी उन दिनों मैक्सिम गोर्की का उपन्यास मदर पढ़ रहे थे। उसी के किरदार पावेल पर मेरा नाम पड़ा। मेरे माता पिता ने मेरे अभिनय सफर में बहुत साथ दिया है। हर माता पिता को अपने बच्चों के सपने पहचानने चाहिए और उन्हें पूरा करने के लिए बच्चों को खुला आसमान भी देना चाहिए, जैसा मेरे माता पिता ने दिया।”पावेल को फिल्म थप्पड़ से शोहरत मिली है। लेकिन, यहां तक आने में उन्हें 14 साल लगे हैं तो क्या समझा जाए कि वनवास पूरा हुआ और अब राज तिलक का समय है?
पावेल ठट्ठा मारकर पहले तो हंसते हैं फिर कहते हैं, “हां, कह सकते हैं कि अब राजतिलक की बारी है। मैं 2006 में मुंबई आया था। व्हिसलिंग वूड्स में ही पढ़ाई के दौरान नसीरुद्दीन शाह से मिलना हुआ फिर कॉलेज के बाद उन्हीं के साथ हो लिया। नसीर साहब की बदौलत ही मैं जो कुछ हूं वह बन पाया हूं।”
नेटफ्लिक्स की घोस्ट स्टोरीज की अनुराग कश्यप वाली कहानी की शूटिंग के दौरान ही पावेल को फिल्म थप्पड़ मिली। और, इस दौरान उन्होंने बाकी सब किनारे छोड़ दिया। पूरी तरह मन लगाकर इस फिल्म की शूटिंग की और नतीजा सबके सामने है। “फिल्म के प्रीमियर पर मम्मी पापा आए थे। फिल्म देखने के बाद मम्मी एक घंटे तक रोती रहीं। और, पापा डेढ़ घंटे तक। ये खुशी के आंसू थे और दोनों देर तक तालियां भी बजाते रहे। इस लम्हे का इंतजार मैंने 14 साल किया है।” पावेल अपने एहसास अमर उजाला के साथ इस एक्सक्लूसिव बातचीत में साझा करते हैं।
वह कहते हैं, “मैंने पिछले 14 साल में बहुत कुछ किया। शशांक खेतान की पहली फिल्म ‘शेरवानी कहां है’ का हीरो था पर फिल्म रिलीज नहीं हो पाई। धारावाहिक युद्ध में अमिताभ बच्चन के साथ काम किया। तमाम दूसरी फिल्मों में छोटे मोटे रोल किए। फिर पिछले साल मेड इन हेवन में लोगों ने मेरे काम पर कायदे से गौर किया। अब जाकर थप्पड़ की खुशी महसूसने का मौका आया है।”
तो उन लाखों युवाओं से पावेल क्या कहना चाहेंगे जिन्हें लगाता है कि सिनेमा में बस जाते ही कामयाबी मिल जाएगी?
“पहली बात तो ये कि अभिनय सिखाया नहीं जा सकता। ये धीरे धीरे करके आता है। दूसरी बात कि बिना धैर्य के इस क्षेत्र में कामयाबी नहीं मिलती। यहां हर दिन एक नया सवेरा लेकर आता है और हर शाम का पसीना आपकी हिम्मत का एक नया इम्तिहान होता है। हौसला बनाए रखना है और शांत रहकर रत्ती रत्ती आगे बढ़ते रहना है। यहां जो भी कामयाब लोग हैं, सबने ऐसा ही संघर्ष किया है।”
