निसंतानता का सबसे सफल और कारगर इलाज है IVF

Health /Sanitation

नि: संतानता हमेशा से ही समाज के लिए एक समस्या रहा है। जिसकी वजह से बहुत सारे लोग वात्सल्य सुख से वंचित रह जाते हैं। हांलाकि अब अत्याधुनिक तकनीक की मदद से लोगों को इस अभिशाप से मुक्ति मिल रही है। विज्ञान की तरक्की के साथ बांझपन की समस्या को खत्म करने के लिए IVF तकनीक का सहारा लिया जाता है। जिसकी मदद से पुरुष और स्त्री दोनों के ही प्रजनन संबंधी दोषों को खत्म किया जा सकता है। तो चलिए जानें आईवीएफ की चार नई तकनीक के बारे में जो नि: संतानता दंपति के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।

आईवीएफ अत्याधुनिक तकनीक है, जिसकी मदद से संतान प्राप्ति अधिक उम्र और जटिल समस्याओ में भी संभव है । ये एक सहायक प्रजनन तकनीक है, जिसकी मदद से गर्भधारण करने में असमर्थ महिलाओं को कृत्रिम तौर पर गर्भ धारण (कृत्रिम गर्भधान) कराया जाता है। हांलाकि गर्भधारण के बाद सारी प्रक्रिया सामान्य गर्भावस्था जैसी ही होती हैं ।
क्या है आईवीएफ की प्रक्रिया: इस तकनीक में लैब में महिला के एग को पुरुष के स्पर्म से फर्टिलाइज कराया जाता है। आईवीएफ के जरिए फर्टिलाइज्ड एग को महिला के गर्भाशय में रखा जाता है जिससे गर्भधारण हो जाता है, महिला के शरीर में फेलोपियन ट्यूब में होने वाली निषेचन की प्राथमिक प्रक्रिया ही आई वी एफ के तहत लैब में की जाती है । आजकल आईवीएफ की चार नवीन तकनीक आ गई है जिसकी मदद से उन महिलाओं में भी गर्भधारण में मदद मिलती है जिनके जीवन में मातृत्व सुख बिल्कुल ही असंभव है।

पहली तकनीक
पहली तकनीक है ICSI। जिसका मतलब इंट्रा है साइटोप्लाजमिक स्पर्म इंजेक्शन। ये तकनीक उन दंपतियों के लिए कारगर है जिनमें पुरुष में स्पर्म की संख्या कम होती है। ICSI की मदद से पुरुष के सीमेन में से स्वस्थ शुक्राणु चुना जाता है और सीधा स्त्री के एग में इंजेक्ट कर दिया जाता है। शुक्राणु को स्त्री के एग में डालने के बाद वह फर्टिलाइज हो जाता है। इसके बाद भ्रूण (एम्ब्र्यो) को स्त्री के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है। इस तकनीक में सफलता की संभावनाए अधिक रहती है | नील शुक्राणु की स्थिति में सीधे टेस्टिस से शुक्राणु लेकर (टीसा तकनीक) वात्सल्य सुख पाया जा सकता है।

दूसरी तकनीक
लेजर हैचिंग है। इस प्रक्रिया को अपनाने की जरूरत उन मरीजों में पड़ती है, जब महिला की उम्र ज्यादा हो या पहले कोई बीमारी रही हो। ऐसी महिलाओं की भ्रूण की बाहरी परत मोटी हो जाती है इस कारण भ्रूण उसे तोड़कर बाहर बच्चेदानी पर चिपक नहीं पाता है। लेजर असिस्टेड हैचिंग प्रक्रिया में भ्रूण की बाहरी परत को लेजर द्वारा कमजोर कर दिया जाता है जिससे गर्भधारण की संभावना औसत से अधिक बढ़ जाती है।

तीसरी तकनीक
तीसरी तकनीक जो गर्भधारण के लिए प्रयोग में लाई जाती है वो ब्लास्टोसिस्ट कल्चर है। इसमें सामान्यतया भ्रूण को 2-3 दिन लैब में रखा जाता है जबकि ब्लास्टोसिस्ट कल्चर प्रक्रिया में भ्रूण को लैब में ही 5-6 दिन तक विकसित किया जाता है और इसके बाद महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है, इस तकनीक में सफलता की सम्भावनाएं अधिकतम होती हैं।

चौथी तकनीक
चौथी तकनीक जोना फ्री एंब्रियोट्रांसफर है। इसमें लैब में ही भ्रूण को 5-6 दिन विकसित करने के बाद जिसे ब्लास्टोसिस्ट कहते हैं को महिला के गर्भाशय में डालने का प्रयास किया जाता है लेकिन महिला की उम्र ज्यादा होने की वजह से ब्लास्टोसिस्ट बनने के बाद भी गर्भाशय में इम्प्लांट नहीं हो पाता है। इसका कारण ब्लास्टुला की आउटर कवरिंग का अधिक कड़ा हो जाना होता है। डॉक्टर कवरिंग को कमजोर करने के लिए लेजर का सहारा लेते हैं। इसके बाद फर्टिलिटी सरल हो जाती है।
आजकल इन चार नई तकनीक की मदद से महिलाओं में गर्भधारण के मौके बढ़ जाते हैं और वो सफलतापूर्वक मां बन सकती है।