(www.arya-tv.com) चेन्नई के मरीना बीच पर कामराज की एक मूर्ति खड़ी है, जिसके दोनों ओर दो किशोर छात्र खड़े हैं. मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के मुख्यमंत्री के रूप में कामराज के योगदान को आज भी तमिलनाडु में बहुत सराहा जाता है. चेन्नई ही नहीं पूरे तमिलनाडु में आप गांधी और नेहरू से ज्यादा प्रतिमाएं शायद कामराज की पाएंगे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद उस समय की भारतीय राजनीति में बहुत ताकतवर शख्सियत बन गए थे. उन्हें “किंगमेकर” के रूप में जाना जाने लगा.
वैसे मरीना बीच पर लगी उनकी प्रतिमा ये याद दिलाती है कि राज्य की शिक्षा के लिए उन्होंने बहुत खास किया. ये उन्हीं का मुख्यमंत्री का कार्यकाल था जिसकी वजह से उस दशक में तमिलनाडु की शिक्षा दर को 85 प्रतिशत तक बढ़ गई. इसके लिए हर कोई उनके काम को याद करता है.
जब कामराज ने 13 अप्रैल 1954 को मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में सीट संभाली, तो उन्होंने हर गरीब और जरूरतमंद को शिक्षा का बीड़ा उठाया. उन्होंने अनिवार्य शिक्षा की नीति बनाई. नए स्कूल बनवाए. स्कूल आने वाले छात्रों को मुफ्त में यूनिफॉर्म दी गई. पाठ्यक्रम में संशोधन किया गया. अपने इन कामों से कामराज ‘शिक्षा के जनक’ के रूप में लोकप्रिय हो गए.
बात यहां से शुरू हुई
1960 के दशक की शुरुआत में तिरुनेलवेली जिले के चेरनमहादेवी शहर का दौरा करते समय, कामराज ने एक लड़के को रेलवे क्रॉसिंग पर मवेशी चराते हुए देखा. तब उन्होंने उससे पूछा वह ऐसा क्यों कर रहा है, स्कूल क्यों नहीं जाता. आपको यहां ये याद दिला दें कि ये तिरवनेलवेली जिला वही है, जहां अभी दिसंबर के दूसरे हफ्ते में दो दिन में इतनी भीषण बारिश हुई, जो पूरे सालभर नहीं होती और यहां त्राहि त्राहि मच गई.
अगर मैं स्कूल जाऊं तो क्या आप मुझे खाना देंगे
कामराज के सवाल के जवाब में इस लड़के ने उल्टे सवाल कर दिया, “अगर मैं स्कूल जाऊं तो क्या आप मुझे खाने के लिए खाना देंगे? मैं तभी सीख सकता हूं जब मैं खाऊंगा,” और लड़के के इन शब्दों में कामराज को उस काम को करने को प्रेरित किया जो आने वाले समय में पूरे देश के प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई के लिए खींचने वाली खास योजना बनने वाली थी, जिसे हम मिड -डे मील के तौर पर जानते हैं.
कामराज को स्कूल छोड़ना पड़ा था
कामराज का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ था. उनके पिता के निधन के बाद मां को गुजारा करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. 11 साल की छोटी उम्र में, कामराज को मां का सहयोग करने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ा. तभी से वह चाहते थे कि उनकी तरह दूसरे बच्चों को स्कूल नहीं छोड़ना पड़े और वो सभी स्कूल जरूर जाएं.
जानते थे कि क्या होती है शिक्षा की अहमियत
कामराज को पूरी तरह अंदाज था कि शिक्षा का जीवन में क्या महत्व होता है. हालांकि ये बात सही है कि उन दिनों शिक्षा किसी गरीब परिवार के लिए विलासिता की तरह थी. और जिस परिवार में खाने के लिए कुछ नहीं होता हो, घोर गरीबी हो, वो अपने बच्चे को कैसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजे. तब उन्हें ये महसूस हुआ कि अगर स्कूल में एक टाइम का ठोस भोजन दिया जाए तो बहुत से बच्चे स्कूल आएंगे और पढ़ने के लिए प्रेरित होंगे.
लेकिन कामराज इसको लागू कराने के लिए दृढ़ता से अड़ गए. उन्होंने योजना आयोग के अधिकारियों से उसी तरह बात की कि वो इसे राज्य में लागू करने के लिए योजना को हरी झंडी दें. उपलब्ध और आवश्यक धनराशि के बीच का अंतर पांच करोड़ (50 मिलियन रुपये) था.
हालांकि, कामराज मध्याह्न भोजन कार्यक्रम को लागू करने के लिए एक नया कर लगाने के लिए तैयार थे. काफी समझाने के बाद एसएफवाईपी में फंडिंग के लिए मध्याह्न भोजन कार्यक्रम को शामिल किया गया. तमिलनाडु के विधानमंडल ने भी इस कार्यक्रम को मंजूरी दे दी.