फर्जी हैं नरेंद्र गिरि की तीनों वसीयत:नियमों के मुताबिक आनंद और बलबीर में से कोई उत्तराधिकारी नहीं

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(www.arya-tv.com)प्रयागराज के बाघम्बरी मठ के महंत नरेंद्र गिरि की मौत के संदर्भ में रोजाना एक नई बात निकलकर सामने आ रही है। कभी उनका सुसाइड लेटर, तो कभी लेटर का वीडियो वर्जन। इन सबके साथ तीन वसीयतें भी सामने आईं, लेकिन अब इन वसीयतों के वजूद पर निरंजनी अखाड़े ने सवाल खड़े कर दिए हैं। मठ एवं अखाड़े के एक वरिष्ठ संत और पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दैनिक भास्कर से एक्सक्लूसिव बातचीत में कहा कि ये तीनों वसीयत मठ की परंपरा का उल्लंघन करके लिखवाई गई हैं। उन्होंने वसीयत बनाने की प्रक्रिया पर प्रमाण के साथ सवाल खड़े किए।

मठ के वरिष्ठ संत कहते हैं, ‘इस मठ की परंपरा है की वसीयत में मठ के कुछ संतों को गवाह के तौर में शामिल किया जाए। उत्तराधिकारी को चुनते वक्त मठ के वरिष्ठ संतों और पदाधिकारियों की भी सलाह ली जाए। मठ में अब तक सभी महंतों ने इसी प्रक्रिया के तहत अपने उत्तराधिकारी चुने और वसीयतें बनवाईं, लेकिन फिलहाल जो वसीयतें सामने आईं हैं, वे सभी इस मठ के नियम का उल्लंघन करके बनाई गई हैं।’ वे कहते हैं, ‘इन वसीयतों में दर्ज उत्तराधिकारी को किसी भी हालत में मठ स्वीकार नहीं करेगा।’

दरअसल, महंत नरेंद्र गिरि की मौत के बाद जब उनका सुसाइड नोट सामने आया, तब पता चला कि उन्होंने तीन बार अपनी वसीयत बदली। आखिरी बार जून 2020 में उन्होंने अपने शिष्य बलबीर गिरि के नाम वसीयत की। यह खबर मीडिया के लिए जितनी नई थी, लगभग मठ के लिए भी उतनी ही नई थी। मठ के दूसरे संतों और अखाड़ा परिषद के लोगों ने इस पर ऐतराज जताया। उन्होंने कहा, पहले सुसाइड का सच सामने आए, उसके बाद उत्तराधिकारी को गद्दी सौंपी जाएगी। दरअसल, नरेंद्र गिरि बाघम्बरी मठ के महंत होने के साथ ही अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष भी थे। यह मठ निरंजनी अखाड़े के तहत आता है।

मठ से लेकर अखाड़ा परिषद के पदाधिकारियों ने महंत की मौत के तुरंत बाद ही बलबीर गिरि को मठ की सत्ता सौंपने की जगह मौत के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिए न केवल अखाड़े के स्तर पर जांच शुरू कर दी थी, बल्कि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी से पड़ताल की मांग भी की थी। ये वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, ‘हमारे पास मौजूदा वसीयतों को फर्जी प्रमाणित करने के लिए मठ के डॉक्युमेंट्स हैं। हम समय आने पर इन कागजों को सबके सामने लाएंगे।’

अब तक दो बातें साफ हो चुकी हैं, अखाड़ा परिषद और मठ दोनों ही बलबीर गिरि को महंत मानने और महंत की ‘आत्महत्या’ को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर CBI अपनी जांच में पाती है कि महंत ने वाकई सुसाइड किया है और बलबीर गिरि किसी भी एंगल से इसमें शामिल नहीं हैं तो क्या मठ महंत की तीसरी वसीयत को अमल में लाएगा? जवाब है नहीं, लेकिन ऐसा क्यों? इसका जवाब मठ की प्राचीन परंपरा और नियमों को खंगालने पर मिलेगा।

क्या है मठ की प्राचीन ‘परंपरा’ ?

निरंजनी अखाड़े के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने  कहा कि अगर महंत ने वाकई ये तीनों वसीयतें की हैं तो उन्होंने मठ की परंपरा का ‘तिरस्कार’ किया है। वे कहते हैं, ‘अब तक जितने भी महंत हुए, उन्होंने अपने उत्तराधिकारी को मठ की प्राचीन परंपरा के हिसाब से चुना। मठ की परंपरा या इसे मठ का कानून भी कहें तो गलत नहीं होगा। इसके मुताबिक सत्तासीन महंत अपने उत्तराधिकारी को चुनने का अधिकार तो रखता है, लेकिन इसमें मठ के अन्य जिम्मेदार संतों और पदाधिकारियों का मशविरा भी शामिल होता है। वसीयत में बाकायदा मशविरा देने वाले ये लोग बतौर गवाह दर्ज होते हैं, लेकिन सामने आ रही तीनों में से किसी भी वसीयत में महंत ने किसी से कोई मशविरा नहीं किया। गवाह के तौर पर मठ का कोई व्यक्ति इन तीनों वसीयतों में शामिल नहीं है।’

आखिर परंपरा की प्रमाणिकता का क्या है प्रमाण?

इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘मठ के महंतों की पहले की गई वसीयतें। दरअसल, यह सभी वसीयतें हमारे पास पहले नहीं थीं। लिहाजा, बिना प्रमाण हम कुछ नहीं कहना चाहते थे। अगर पहले से हम यह सब बोलते तो रजिस्ट्रार ऑफिस से कागज निकलवाने में दिक्कत आती, लेकिन अब हमारे पास पहले के महंतों की वसीयत हैं। इन वसीयतों में उत्तराधिकारी के लिए मशविरा देने वाले संतों की गवाही शामिल है, जबकि नरेंद्र गिरि की वसीयत में ऐसा कुछ नहीं है।’

300 साल पुराना मठ का इतिहास, अब तक मठ की परंपरा से चुनकर आते रहे उत्तराधिकारी

महंत नरेंद्र गिरि जी से पहले बाघम्बरी मठ के महंत थे- भगवान दास गिरि जी। इन्होंने मठ के संतों और पदाधिकारियों से सलाह मशविरा के बाद ही नरेंद्र गिरि को 2004 में महंत चुना था। उसी साल भगवान गिरि जी की मौत भी हो गई थी। कहा जाता है कि उनकी मौत कैंसर से हुई, लेकिन मठ के भीतर और मठ से संपर्क रखने वाले बाहर के लोगों के बीच उनकी मौत को लेकर अलग-अलग मत हैं। उनकी मौत को भी षड्यंत्र मानने वालों की संख्या कम नहीं है।

भगवानदास जी से पहले विचारानंद गिरि जी महंत थे। उनकी मौत की गुत्थी भी आज तक नहीं खुल पाई। मठ के भीतर यह कहानी आम है कि उन्हें जहर देकर मारा गया। हालांकि इन दोनों मौतों की जांच नहीं हुई। इससे पहले बलदेव गिरि जी यहां के महंत थे। इससे ज्यादा कहानी यहां के किसी महंत को याद नहीं। तारीखों और साल के साथ इन महंतों के बारे में पूछने पर हर पदाधिकारी कहता है पुराने कागज खंगालने पड़ेंगे, लेकिन इन सबकी वसीयत अब मठ के पदाधिकारियों के हाथ में है। रविंद्र पुरी कहते हैं, ये सभी वसीयतें प्रमाणित करती हैं कि बिना सलाह-मशविरा-गवाह के लिखी गई कोई भी वसीयत मठ के नियमों के खिलाफ है। लिहाजा तीनों ‘वसीयत’ फर्जी हैं।

क्या तीनों वसीयतों से मठ वाकई अनजान था?

तीनों वसीयत करने वाले एडवोकेट ऋषि शंकर द्विवेदी कहते हैं, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता कि किसी को भी इनका पता नहीं था, लेकिन हां, वसीयत किसी के पास नहीं थी।’ वे कहते हैं, वैसे भी जिंदा रहते अपनी वसीयत को गुप्त ही रखा जाता है। अगर वसीयत सामने आ जाती है तो विवाद का खतरा रहता है। इस मामले में मठ के सेवादारों और अन्य पदाधिकारियों के बीच में चर्चा है कि दरअसल महंत की रहस्यमय मौत ने इस विवाद को जन्म दिया है।